कामकाजी औरतें
कामकाजी औरतें हड़बड़ी में निकलती हैं, रोज सुबह घर से, आधे रास्ते में याद आता है। सिलेंडर नीचे से बंद किया ही नहीं, उलझन में पड़ जाता है दिमाग। कहीं गीजर खुला तो नहीं रह गया। जल्दी में आधा सैंडविच छूटा रह जाता है टेबल पर।
हड़बड़ाहट में पहुँचती हैं ऑफिस
कितनी ही जल्दी उठें और तेजी से निपटायें काम, ऑफिस पहुँचने में देर हो ही जाती है। खिसियाई हंसी के साथ बैठती हैं अपनी सीट पर, बॉस के बुलावे पर सिहर जाती हैं। सिहरन को मुस्कुराहट में छुपाकर, नाखूनों में फंसे आटे को निकालते हुए, अटेंड करती हैं मीटिंग। काम करती हैं पूरी लगन से।
चाय पीने का भी समय नहीं
पूछना नहीं भूलतीं बच्चों का हाल, सास की दवाई के बारे में।
उनके पास नहीं होता वक्त पान, सिगरेट या चाय के लिए, बाहर जाने का। उस वक्त में वे जल्दी-जल्दी निपटाती हैं काम। ताकि समय से काम खत्म करके घर के लिए निकल सकें। दिमाग में चल रही होती सामान की लिस्ट, जो लेते हुए जाना है घर दवाइयां, दूध, फल, राशन इत्यादि।
कैसे शामिल होती हैं मीटिंग में।
ऑफिस से निकलने को होती ही हैं कि तय हो जाती है कोई मीटिंग। जैसे देह से निचुड़ जाती है ऊर्जा। बच्चे की मनुहार जल्दी आने की, रुलाई बन फूटती है वाशरूम में, मुंह धोकर, लेकर गहरी सांस, शामिल होती है मीटिंग में।
नजर लगातार होती है घड़ी पर। बच्चे की गुस्से वाली सूरत, साइलेंट मोड में पड़े फोन पर आती रहती हैं। ढेर सारी कॉल्स, फिर भी दिल कड़ा करके वो ध्यान लगाती हैं मीटिंग में।
घर पहुँच कर डैमेज कंट्रोल
घर पहुंचती हैं सामान से लदी फंदी, देर होने के संकोच और अपराधबोध के साथ, शिकायतों का अम्बार खड़ा मिलता है। घर पर, जल्दी जल्दी फैले हुए घर को समेटते हुए, सबकी जरूरत का सामान देते हुए, करती हैं डैमेज कंट्रोल।
मन में समाया हुआ डर
मन घबराया हुआ होता है कि कैसे बतायेंगी घर पर टूर पर जाने की बात, कैसे मनायेंगी सबको, कैसे मैनेज होगा उनके बिना घर। ऑफिस में सोचती हैं कैसे मना करेंगी कि नहीं जा सकेंगी इस बार, कितनी बार कहेंगी घर की समस्या की बात।
ढेर सा काम तेजी से
कामकाजी औरतें सुबह ढेर सा काम करके जाती हैं घर से कि शाम को आराम मिलेगा, रात को ढेर सारा काम करती हैं सोने से पहले, कि सुबह हड़बड़ी न हो।
ऑफिस में तेजी से काम करती हैं कि घर समय पर पहुंचे, घर पर तेजी से काम करती हैं कि ऑफिस समय से पहुंचे। हर जगह सिर्फ काम को जल्दी से निपटाने की हड़बड़ी में, एक रोज मुस्कुरा देती हैं आईने में झांकते सफ़ेद बालों को देख।
क्या खास करती हो?
किसी मशीन में तब्दील हो चुकी कामकाजी औरतों से, कहीं कोई खुश नहीं न घर में, न दफ्तर में न मोहल्ले में, वो खुद भी खुश नहीं होतीं खुद से। मुझसे कुछ ठीक से नहीं होता’ के अपराध बोध से भरी कामकाजी औरतें, भरभराकर गिर पड़ती हैं किसी रोज, और तब उनके साथी कहते हैं, ‘ऐसा भी क्या खास करती हो? जो इतना ड्रामा कर रही हो।’
मशीन में बदल चुकी कामकाजी औरतें, एक रोज तमाम तोहमतों से बेजार होकर, जीना शुरू कर देती हैं, थोड़ा सा अपने लिए भी, और तब लड़खड़ाने लगते हैं तमाम सामाजिक समीकरण।
मशीन में बदल चुकी कामकाजी औरतें, एक रोज तमाम तोहमतों से बेजार होकर, जीना शुरू कर देती हैं, थोड़ा सा अपने लिए भी, और तब लड़खड़ाने लगते हैं तमाम सामाजिक समीकरण। इस पर आपकी क्या राय है ? कृपया कमेन्ट करके जरूर बताएं। क्या ये सब आपके साथ भी होता है?
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