45 साल के महात्मा गाँधी 1915 में भारत आते हैं, 2 दशक से भी ज्यादा दक्षिण अफ्रीका में बिता कर। इससे 4 साल पहले 28 वर्ष का एक युवक अंडमान में एक कालकोठरी में बन्द होता है। अंग्रेज उससे दिन भर कोल्हू में बैल की जगह हाँकते हुए तेल निकलवाते हैं, रस्सी बटवाते हैं और छिलके कुटवाते हैं। वो तमाम कैदियों को शिक्षित कर रहा होता है, उनमें राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ प्रगाढ़ कर रहा होता है और साथ ही दीवारों कर कील, काँटों और नाखून से साहित्य की रचना कर रहा होता है। जिनका नाम था- विनायक दामोदर सावरकर
वीर सावरकर।
वीर सावरकर एक स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, लेखक और राजनीतिक विचारक थे। वह भारत में एक राजनीतिक संगठन, हिंदू महासभा के एक प्रमुख व्यक्ति थे।
बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं और बंगाल के विभाजन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और स्वदेशी आंदोलन से बहुत प्रेरित थे। वीर सावरकर ने ही सबसे पहले 1857 के विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया था। उन्होंने ब्रिटिश शासन को अन्यायपूर्ण और दमनकारी बताया।
कालापानी की यातनाएं
कालापानी की सजा इतनी ज्यादा भयानक थी कि उन्हें आत्महत्या के ख्याल आते। उस खिड़की की ओर एकटक देखते रहते थे। जहाँ से अन्य कैदियों ने पहले आत्महत्या की थी। पीड़ा असह्य हो रही थी। यातनाओं की सीमा पार हो रही थी। अंधेरा उन कोठरियों में ही नहीं, दिलोदिमाग पर भी छाया हुआ था। दिन भर बैल की जगह खटो, रात को करवट बदलते रहो। 11 साल ऐसे ही बीते। कैदी उनकी इतनी इज्जत करते थे कि मना करने पर भी उनके बर्तन, कपड़े वगैरह धो देते थे। उनके काम में मदद करते थे। सावरकर से अँग्रेज बाकी कैदियों को दूर रखने की कोशिश करते थे। अंत में बुद्धि को विजय हुई तो उन्होंने अन्य कैदियों को भी आत्महत्या से विमुख किया।
मर्सी पेटिशन पर सवाल
कुछ , महा गँवारों का कहना है कि सावरकर ने मर्सी पेटिशन लिखा, सॉरी कहा, माफ़ी माँगी..ब्ला-ब्ला-ब्ला। मूर्खों, काकोरी कांड में फँसे क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल ने भी माफ़ी माँगी थी, तो? उन्हें भी ‘डरपोक’ करार दोगे? बताओ। उन्होंने भी माफ़ी माँगी थी अंग्रेजों से। क्या अब इस कसौटी पर क्रांतिकारियों को तौला जाएगा? शेर जब बड़ी छलाँग लगाता है तो कुछ कदम पीछे लेता ही है। उस समय उनके मन में क्या था, आगे की क्या रणनीति थी? इसके बारे मे नहीं सोचेंगे। ये ढिंगे हाँकने वाले जिनकी तरफदारी करते है जरा बताएं कि उनमे से कोई एक भी है जिसे 11 साल कालापानी की सज़ा मिली हो।
नेहरू? गाँधी? कौन?
नानासाहब पेशवा, महारानी लक्ष्मीबाई और वीर कुँवर सिंह जैसे कितने ही वीर इतिहास में दबे हुए थे। 1857 को सिपाही विद्रोह बताया गया था। तब इसके पर्दाफाश के लिए 20-22 साल का एक युवक लंदन की एक लाइब्रेरी का किसी तरह एक्सेस लेकर और दिन-रात लग कर अँग्रेजों के एक के बाद एक दस्तावेज पढ़ कर सच्चाई की तह तक जा रहा था। जो भारतवासियों से छिपाया गया था। उसने साबित कर दिया कि वो सैनिक विद्रोह नहीं, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। उसके सभी अमर बलिदानियों की गाथा उसने जन-जन तक पहुँचाई। भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों ने मिल कर उसे पढ़ा, अनुवाद किया।
किताबों पर प्रतिबंध
दुनिया में कौन सी ऐसी किताब है जिसे प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया गया था? अँग्रेज कितने डरे हुए थे उससे कि हर वो इंतजाम किया गया, जिससे वो पुस्तक भारत न पहुँचे। जब किसी तरह पहुँची तो क्रांति की ज्वाला में घी की आहुति पड़ गई। कलम और दिमाग, दोनों से अँग्रेजों से लड़ने वाले सावरकर थे। दलितों के उत्थान के लिए काम करने वाले सावरकर थे। 11 साल कालकोठरी में बंद रहने वाले सावरकर थे। हिंदुत्व को पुनर्जीवित कर के राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले सावरकर थे। साहित्य की विधा में पारंगत योद्धा सावरकर थे।
आज़ादी के बाद का जीवन
आज़ादी के बाद क्या मिला उन्हें? अपमान। नेहरू व मौलाना अबुल कलाम जैसों ने तो मलाई चाटी सत्ता की, सावरकर को गाँधी हत्या केस में फँसा दिया। गिरफ़्तार किया। पेंशन तक नहीं दिया। प्रताड़ित किया। 60 के दशक में उन्हें फिर गिरफ्तार किया, प्रतिबंध लगा दिया। उन्हें सार्वजनिक सभाओं में जाने से मना कर दिया गया। ये सब उसी भारत में हुआ, जिसकी स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपना जीवन खपा दिया। आज़ादी के मतवाले से उसकी आज़ादी उसी देश में छीन ली गई, जिसे उसने आज़ाद करवाने में योगदान दिया था। शास्त्री जी PM बने तो उन्होंने पेंशन का जुगाड़ किया।
कालापानी एक तीर्थस्थल
वो कालापानी में कैदियों को समझाते थे कि धीरज रखो, एक दिन आएगा जब ये जगह तीर्थस्थल बन जाएगी। आज भले ही हमारा पूरे विश्व में मजाक बन रहा हो, एक समय ऐसा होगा जब लोग कहेंगे कि देखो, इन्हीं कालकोठरियों में हिंदुस्तानी कैदी बन्द थे। सावरकर कहते थे कि तब उन्हीं कैदियों की यहाँ प्रतिमाएँ होंगी। आज आप अंडमान जाते हैं तो सीधा ‘वीर सावरकर इंटरनेशनल एयरपोर्ट’ पर उतरते हैं। सेल्युलर जेल में उनकी प्रतिमा लगी है। उस कमरे में प्रधानमंत्री भी जाकर ध्यान धरता है, जिसमें सावरकर को रखा गया था। सावरकर का अपमान करने का अर्थ है अपने ही थूक को ऊँट के मूत्र में मिला कर पीना।
वीर सावरकर कई मायनों में एक नेता थे, हम उनके जीवन से छह नेतृत्व सबक ले सकते हैं।
दूरदृष्टि
महान नेता दूरदर्शी होते हैं। वे दूसरों की क्षमताओं से परे भविष्य में बहुत दूर तक देख सकते हैं। इसी दूरदर्शी उत्साह ने वीर सावरकर को हिन्दू महासभा का सदस्य बना दिया। उन्होंने हिंदूपन (या जिसे हिंदुत्व के नाम से जाना जाता है) शब्द को तब भी लोकप्रिय बनाया जब यह बहुत विवादास्पद था। इस कदम का सार हिंदू पहचान की भावना पैदा करना था जो भारत पर आधारित थी। उनका हिंदुत्व जातिगत भेदभाव और अन्य स्वदेशी प्रथाओं से मुक्त था जो हिंदू धर्म को तोड़ रहे थे। दिवाली और सक्रांति जैसे हिंदू त्योहारों पर, वीर सावरकर विभिन्न जातियों के लोगों के साथ घरों में जाते थे और मिठाइयाँ बाँटते थे। अखंड हिंदुत्व के प्रति उनका दृष्टिकोण सराहनीय है।
सीखने और सिखाने का जुनून
एक अच्छा नेता बनने का मतलब है कि आपको अच्छी तरह से सूचित और जानकार होना चाहिए। जब शिक्षा की बात आती है तो वीर सावरकर कहीं नहीं रुकते। उन्होंने पुणे में स्थित फर्ग्यूसन कॉलेज में अपने लिए प्रवेश प्राप्त किया और अपनी स्नातक की डिग्री पूरी की। बाद में वह कानून की पढ़ाई के लिए यूनाइटेड किंगडम चले गए। हालाँकि, शिक्षा का मतलब सिर्फ कॉलेज में प्रवेश करना और पेपर देना नहीं था। सावरकर ने अन्य छात्रों को ब्रिटिश कब्जे के तहत भारत के संघर्षों को समझने में मदद की। मई 1907 की शुरुआत में, लंदन में रहते हुए, वीर सावरकर ने 1857 के भारतीय विद्रोह की 50वीं वर्षगांठ का जश्न तिलक हाउस, 78 गोल्डस्मिथ एवेन्यू, एक्टन, लंदन में आयोजित किया। छात्रों ने ‘1857 के शहीदों का सम्मान’ नामक किंवदंती वाले बैज पहने। सावरकर ने इसी तरह दूसरों को शिक्षित किया।
लचीलापन
वीर सावरकर को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन वे लचीले बने रहे। एक छात्र के रूप में पुणे में रहते हुए, उन्होंने 1904 में अपने भाई गणेश दामोदर सावरकर के साथ अभिनव भारत सोसाइटी नामक एक गुप्त संगठन की स्थापना की। वह यहीं नहीं रुके और फ्री इंडिया सोसाइटी और इंडिया हाउस के सदस्य बन गए। वह ब्रिटेन से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने वाली कई पुस्तकों के लेखक बने। जब उसे भारत में प्रत्यर्पित करने का आदेश दिया गया। तो उन्होंने भागने की योजना बनाने और फ्रांस में शरण लेने का प्रयास किया, जब जहाज मार्सिले शहर में खड़ा था। अंडमान में लगभग 15 वर्षों की सबसे खराब कारावास की सजा भुगतने के बाद भी, वीर सावरकर ने अपनी रिहाई के बाद सामाजिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया और कभी हार नहीं मानी।
साहस
वीर सावरकर इतने बहादुर थे कि उन्होंने उस समय पृथ्वी पर सबसे बड़ी शक्ति – ब्रिटिश साम्राज्य – का मुकाबला किया। उन्होंने साहसपूर्वक भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का आह्वान किया और यहाँ तक कि क्रांति की भी वकालत की। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारत को आज़ाद होना ही चाहिए। उन्होंने ऐसी पुस्तकें प्रकाशित कीं जो इतनी भड़काऊ और उकसाने वाली थीं कि ब्रिटिश अधिकारियों ने उन पर प्रतिबंध लगा दिया। ये इंडियन वॉर्स ऑफ इंडिपेंडेंस जैसी किताबें थीं, जो 1857 के भारतीय विद्रोह पर केंद्रित थीं। उन्होंने भारत को विभाजन से बचाने के लिए गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं का विरोध किया।
व्यावहारिकता
एक उत्कृष्ट नेता व्यावहारिकता में माहिर होता है क्योंकि वह जानते थे कि कब व्यावहारिक होना है या कब सैद्धांतिक होना है। वीर सावरकर मुसलमानों के सबसे अच्छे मित्र नहीं थे, लेकिन वे जानते थे कि एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कब उनके साथ मिलकर काम करना है। उन्होंने 1939 में इसका प्रदर्शन किया जब उन्होंने सत्ता हासिल करने के लिए मुस्लिम लीग और अन्य राजनीतिक दलों के साथ सहयोग किया। ऐसी गठबंधन सरकारें सिंध, एनडब्ल्यूएफपी और बंगाल में बनीं। उन्होंने देश को आज़ाद कराने और भविष्य में भारत और हिंदुओं की रक्षा के लिए हिंदुओं का सैन्यीकरण भी शुरू कर दिया।
वीर सावरकर 1942 के वर्धा सत्र में कांग्रेस कार्य समिति द्वारा लिए गए निर्णय के आलोचक थे। जिसमे एक प्रस्ताव पारित किया और अंग्रेजों से कहा गया: “भारत छोड़ो लेकिन अपनी सेनाएँ यहीं रखो”, जो भारत पर ब्रिटिश सैन्य शासन की पुनर्स्थापना थी। जो सावरकर के हिसाब से बहुत बुरा था। सावरकर जानते थे कि भारत में ब्रिटिश सेना की उपस्थिति व्यावहारिक रूप से एक हार वाली स्थिति है और इसलिए उन्होंने इस कदम का विरोध किया।
धैर्य
वीर सावरकर को जीवन में बहुत कुछ सहना पड़ा। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की कैद से लेकर यूनाइटेड किंगडम से उनके प्रत्यर्पण तक। हालाँकि, उन्होंने हर चीज़ को अच्छी तरह से लिया और उच्चतम स्तर के धैर्य का प्रदर्शन किया। जेल में रहते हुए उन्होंने कई किताबें और निबंध लिखे और हिंदुत्व से अपनी आँखें नहीं हटाईं।