यह कविता भारत की युवा पीढ़ी की वास्तविकता पर चोट करती है, हो सकता है किसी मित्र को बुरा लगे तो मै क्षमा चाहूंगा , लेकिन जो सच है , उसे बयां करना भी जरूरी था।
संस्कृति – देश की पहचान
जवां दिल और जवां मौसम संग
लूट गई आज जवानी भी
शर्मो- हया की बातें करना
अब लगता है बेमानी भी
पश्चिम के प्रभाव से भैया
कपड़े हो गए छोटे जी
थोड़ी सी हया भी बच जाती
गर जो घुंघट होते भी
सभ्य समाज की संकल्पना
कैसे बूढ़ा बाप करे
भरी सभा में गर बेटी ही
खुल्लम- खुल्ला नाच करे
ताका- झांकी में लगे रह कर
बिगड़े बाप के बेटे भी
बिक गई पुरखों के धरोहर
जेवर , मकान और खेतें भी
हरी – भरी दुनिया में लाकर
जिसने तुम्हे संवारा है
देव स्वरूप पूजन के बदले
तुमने उन्हें दुत्कारा है
मत भूल तुम उस भारत के बेटे हो
जिसने दुनिया को ज्ञान दिया
तुम लड़ते हो भाई- भाई में
उसने दुश्मन को सम्मान दिया
ये भटकी हुई राहों की यारों
छोटा सा परिणाम है
छोटा सा परिणाम है
जो हो रहा अविराम है
निंदा नहीं भगिनी- बन्धु की
पर , उनसे ये अरमान है
अपनाओ सभ्यता – संस्कृति अपनी
क्यूंकि, संस्कृति ही देश की पहचान है
कवि
रौशन कुमार “प्रिय”
गांव – सोंधी,
जिला -लखीसराय, बिहार
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