ढूंढ़ रहा हूं अपना  गांव

कविता और शायरी

कुकरू काका  “लाठी वाले” न गैया को चराते   हैं। झगडू बाबा “पोथी वाले”, न  राग  अपना  दुहराते हैं।

ढूंढ़ रहा हूं अपना गांव

रहा नहीं  वो  बाग- बगीचा
रहा नहीं  कुआं -तालाब। 
गैया  भी रंभाती ठंढ़ से
जलता नहीं  अब कहीं  'अलाव'
शहीद हुआ वो बूढ़ा बरगद
मांगू किससे झूला और छांव
जाने कहां वो खो गया
ढूंढ़ रहा हूं अपना गांव
ढूंढ़ रहा हूं अपना गांव।। 
कुकरू काका  "लाठी वाले"
न गैया को चराते   हैं। 
झगडू बाबा "पोथी वाले",
न  राग  अपना  दुहराते हैं। 
हलवाहा  रामू   काका
अब न दिखाते जख्मी  पांव। 
जाने कहां वो खो गया
ढूंढ़ रहा हूं अपना गांव
ढूंढ़ रहा हूं अपना गांव।। 
दशहरे की न अब वो रौनक,
न दीवाली  की वो ठाठ। 
फीकी पड़ी रोली होली की,
होता  न  बच्चों   का  उत्पात
मालपुए  खाने  को  अब  तो
कौए  भी करते काँव 
जाने कहां वो खो गया
ढूंढ़ रहा हूं अपना गांव
ढूंढ़ रहा हूं अपना गांव।। 
भौतिकवादी चकाचौंध से
भले गांव विकसित  हो जाए। 
पर अपनी स्वार्थसिद्धि के खातिर 
सबका  मन   कुतषित   हो   जाए। 
अब   थानेदार    झगड़ा   निपटाते
लगा "पंच- परमेश्वर"  पर  भी दांव 
जाने कहां वो खो गया। 
जाने कहां वो खो गया
ढूंढ़ रहा हूं अपना गांव
ढूंढ़ रहा हूं अपना गांव।। 
 रौशन कुमार ‘प्रिय’
हिन्दी भाषी कवि
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