विस्मृत नायक खुदीराम बॉस

विस्मृत नायक

स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे युवा नेताओं में से एक, खुदीराम बोस का उनकी निडर भावना के लिए बंगाल में बहुत सम्मान किया जाता है।  एक सदी बीत चुकी है, लेकिन आज भी यह नाम सुनते ही लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते है।#ForgottenHeroes की कहानी

खुदीराम बॉस

निडरता के प्रतीक खुदीराम बोस भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे युवा क्रांतिकारियों में से एक थे। वह केवल 18 वर्ष के थे, जब उन्हे 1908 में बिहार के मुजफ्फरपुर में एक हमले और उसके बाद तीन अंग्रेजों की हत्या के लिए मौत की सजा सुनाई गई थी। एक सदी बीत चुकी है, लेकिन आज भी यह नाम सुनते ही लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते है।

प्रारंभिक जीवन

3 दिसंबर, 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के केशपुर पुलिस स्टेशन के अंतर्गत स्थित हबीबपुर के छोटे से गाँव में जन्मे खुदीराम एक तहसीलदार के बेटे थे।  जो तीन बेटियों के परिवार में चौथे बच्चे थे।

युवा खुदीराम के लिए जीवन शुरू से ही कठिन था। उन्होंने छह साल की उम्र में अपनी मां और एक साल बाद अपने पिता को खो दिया। उनकी बड़ी बहन द्वारा देखभाल की गई, वह उनके साथ हटगछा गांव में रहते थे और हैमिल्टन हाई स्कूल में पढ़ते थे।

क्रांतिकारी बीज कैसे फूटा?

खुदीराम मिदनापुर में 1900 दशक की शुरुआत में श्री अरबिंदो और बहन निवेदिता द्वारा दिए गए सार्वजनिक व्याख्यानों से प्रेरित होकर किशोरावस्था में ही क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर आकर्षित हो गए थे।  

क्रांतिकारी गतिविधियां

जब वह केवल 15 वर्ष के थे, तब वे एक स्वयंसेवक बन गए, और भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ पर्चे बांटने के लिए उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया।

ठीक एक साल बाद, खुदीराम पूरी तरह से क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग ले रहे थे। पुलिस थानों के पास बम लगा रहे थे और अंग्रेज अधिकारियों को निशाना बना रहे थे।

ऐसा कहा जाता है कि खुदीराम एक बंगाली संगठन अनुशीलन समिति का हिस्सा थे। जो 20वीं सदी की पहली तिमाही में सक्रिय थी। जिसने क्रांतिकारी हिंसा को अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के साधन के रूप में प्रतिपादित किया था। ब्रिटिश शासन के दौरान, इस समिति का नेतृत्व अरबिंदो घोष और उनके भाई, बरिंद्र घोष जैसे राष्ट्रवादियों ने किया था।

किंग्सफोर्ड क्यों थे निशाने पर?

डगलस एच किंग्सफोर्ड कलकत्ता के मुख्य प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट थे। स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ी और कठोर सजा देने के लिए कुख्यात। वह क्रांतिकारियों के निशाने पर थे, क्योंकि वह विभाजन विरोधी और स्वदेशी कार्यकर्ताओं के प्रति विशेष रूप से प्रतिशोधी थे।

हालाँकि, बंदे मातरम के संपादक अरबिंदो घोष और इसके प्रकाशक बिपिन चंद्र पाल का मामला। यह एक घटना थी जिसने किंग्सफोर्ड को अपनी पीठ पर निशाना लगाने के लिए क्रांतिकारियों को मजबूर किया।

एक 15 वर्षीय नौजवान, सुशील सेन ने अदालत के सामने इकट्ठे हुए क्रांतिकारियों की पिटाई करने वाली पुलिस की क्रूरता का विरोध किया था और किंग्सफोर्ड ने लड़के के लिए 15 कोड़े मारने का आदेश दिया था। हर कोड़े के साथ सेन ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाते रहे। यह खबर प्रेस में व्यापक रूप से प्रकाशित हुई थी और जब क्रांतिकारियों ने इस खबर को पढ़ा, तो वे गुस्से से उबल पड़े और फैसला किया कि किंग्सफोर्ड से बदला किसी भी हाल मे लेना है।

हालांकि, ब्रिटिश सरकार को योजना की हवा लगी, तो किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर स्थानांतरित कर दिया। इस उम्मीद में कि कलकत्ता में क्रांतिकारियों का गुस्सा कम हो जाएगा।

क्रांतिकारियों ने इस योजना के बारे में सुना और मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड को मारने के लिए तैयार हो गए।

मिशन के लिए खुदीराम बॉस की नियुक्ति

यह एक कठिन मिशन होने जा रहा था, और केवल एक भरोसेमंद आदमी को ही ये काम सौंपा जा सकता था। प्रभारी लोगों ने प्रफुल्ल कुमार चाकी और खुदीराम बोस को नियुक्त करने का फैसला किया, जो तुरंत सहमत हो गए।

मिशन को अंजाम देने की तैयारी

अगस्त 1908 के तीसरे सप्ताह में दोनों युवा क्रांतिकारी ‘हरेन सरकार’ और ‘दिनेश रॉय’ नामों के साथ मुजफ्फरपुर पहुंचे। दोनों लड़के बिहारी जमींदार परमेश्वर नारायण महतो की धर्मशाला में रुके और काम पर लग गए। उन्होंने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या के बारे में जानकारी प्राप्त की, अदालत में उनके समय, यूरोपीय स्टेशन क्लब और उनके घर के बारे में भी अच्छी जानकारी प्राप्त की। साथ में ये भी सुनिश्चित किया कि कौन सा समय हमले के लिए उचित रहेगा।

उन्होंने फैसला किया कि किंग्सफोर्ड जब रात 8:30 बजे क्लब से बाहर निकलेंगे तब बम से हमला किया जाएगा इससे दोनों को रात में हिट-आउट करने का मौका मिलेगा।

किंग्सफोर्ड पर हमला

योजना के अनुसार जब किंग्सफोर्ड क्लब से निकल तो प्रफुल्ल और खुदीराम उसकी गाड़ी पर हमला करने के लिए तैयार थे। जैसे ही घोड़ा गाड़ी नजदीक आई, खुदीराम ने उस पर बम फेंका। एक विस्फोट हुआ, और हिट सफल रहा। गाड़ी के परखच्चे उड़ गए और आग की लपटों में घिर गई।

देखते ही देखते हमले की खबर आग की तरह फैल गई। आधी रात तक सभी को घटना की जानकारी हो गई थी और पुलिस संदिग्धों की तलाश में थी।

खुदीराम बॉस की गिरफ़्तारी

योजना को अंजाम देकर खुदीराम पूरी रात भागते रहे और 25 मील दूर थके-थके ‘वैनी’ नामक स्टेशन पर पहुँच गया। वह एक चाय की दुकान पर गए और पानी मांगा। उनका सामना कुछ कांस्टेबलों से हुआ, क्योंकि उन्हे पसीना आ रहा था और वह थक गए थे। जिससे कांस्टेबलों को तुरंत उन पर शक हो गया।  उन्होंने उससे कुछ सवाल पूछे और संदेह बढ़ने पर उसे हिरासत में लेने का फैसला किया। खुदीराम ने भागने की कोशिश की लेकिन पुलिस ने पकड़ लिया।

किंग्सफोर्ड का बच जाना

खुदीराम और प्रफुल्ल ने गाड़ी पर बम फेंका था, लेकिन दुख की बात है कि वह किंग्सफोर्ड की गाड़ी नहीं थी। इस पर मुजफ्फरपुर बार के एक प्रमुख वकील प्रिंगल कैनेडी की पत्नी श्रीमती कैनेडी और उनकी बेटी थे। हमले में दोनों महिलाओं ने कुछ ही घंटों के भीतर प्राण त्याग दिए।

प्रफुल्ल कुमार की मौत

खुदीराम को जिला मजिस्ट्रेट श्री वुडमैन के पास लाया गया। उधर प्रफुल्ल एक अलग रास्ते से भागे थे। जिन्हे पुलिस ने पकड़ लिया था।  हालांकि, इससे पहले कि पुलिस पकड़ पाती, उन्होंने खुद को मुंह में गोली मार ली थी।

खुदीराम पर मुकदमा

पुलिसकर्मियों द्वारा पकड़े जाने पर खुदीराम को जिला मजिस्ट्रेट श्री वुडमैन के पास लाया गया।

प्रफुल्ल की मौत से अनजान खुदीराम बोस ने जिलाधिकारी के सामने मुजफ्फरपुर बम धमाकों की पूरी जिम्मेदारी अपने सर ले ली। उसके बाद उस पर मुकदमा चलाया गया।

21 मई 1908 को मुकदमा शुरू हुआ और बोस को दो अन्य लोगों के साथ पैनल के सामने पेश किया गया। कुछ वकीलों ने देश के प्रति प्रेम का हवाला देते हुए खुदीराम का मामला उठाया भी लेकिन उसपे कुछ ध्यान नहीं दिया गया।

क्रांतिकारी को फांसी

23 मई को, खुदीराम ने हमले के लिए किसी भी जिम्मेदारी से इनकार करते हुए, मजिस्ट्रेट को अपना बयान फिर से सौंप दिया। हालाँकि, उसको नजर अंदाज कर दिया गया और खुदीराम बॉस को सजा-ए-मौत दी गई।

फैसला पढ़कर सुनाए जाने पर, खुदीराम बोस मुस्कुराए, न्यायाधीश ने उनसे पूछा कि क्या वह अपनी सजा के बारे में समझते हैं। बोस चुटीले थे और उन्होंने जवाब दिया कि, उन्होंने न केवल फैसले को समझ लिया है। बल्कि अगर उन्हें समय दिया गया तो वे जज को बम बनाना सिखाने के लिए भी तैयार हैं।

उच्च न्यायालय में अपील

अभी भी उम्मीद थी, क्योंकि खुदीराम के पास उच्च न्यायालय में अपील करने के लिए एक सप्ताह का समय था। खुदीराम ने शुरू में इनकार कर दिया।  लेकिन अपने सलाहकारों के समझाने के बाद अपील करने के लिए तैयार हो गए।

हाईकोर्ट में सुनवाई 8 जुलाई को हुई थी। नरेंद्र कुमार बसु ने खुदीराम की ओर से अदालत के फैसले को चुनौती दी। बसु ने उत्साह से तर्क दिए। प्रासंगिक बिंदुओं को लाते हुए, इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि प्रफुल्ल ने खुद को गोली मार ली- ये इस बात का संकेत था कि वह बम फेंकने के लिए दोषी थे।

13 जुलाई, 1908 को ब्रिटिश न्यायाधीशों ने अंतिम फैसले की घोषणा की। खुदीराम की अपील खारिज कर दी गई और ब्रिटिश न्यायाधीशों ने उनकी सजा की पुष्टि की और 11 अगस्त से पहले फांसी की सजा पर अमल करने का आदेश जारी किया गया था।

अंतिम संस्कार

फांसी वाले दिन, जेल के पास का क्षेत्र फूलों की माला लिए भीड़ से भर गया था। खुदीराम कथित तौर पर आत्मविश्वास से फाँसी पर चढ़ गए और कुछ ही समय बाद उन्हें लटका दिया गया। भारतीयों ने एक युवा और बहादुर स्वतंत्रता सेनानी, खुदीराम बोस को खो दिया था। उनके अंतिम संस्कार का जुलूस कोलकाता से होकर गुजरा, सड़क उनके शरीर पर फूल चढ़ाने वाले लोगों से खचाखच भरी रही।

18 वर्ष की अल्पायु में खुदीराम को फांसी पर लटका दिया गया। उनकी मृत्यु ने क्रांतिकारियों के बीच ओर उत्साह जगाया। कवि, पीतांबर दास ने बंगाली मे एक गीत भी लिखा, जो खुदीराम के अपनी मातृभूमि के प्रति जुनून को प्रतिध्वनित करता था।

सम्मान

उनके सम्मान में, मुजफ्फरपुर जेल, जहां उन्हें फांसी दी गई थी, का नाम खुदीराम बोस मेमोरियल सेंट्रल जेल रखा गया था। जिस स्टेशन पर उसे पकड़ा गया था उसका नाम बदलकर वैनी स्टेशन से खुदीराम बोस पूसा रेलवे स्टेशन कर दिया गया था।

लेकिन ऐसे वीर सेनानी के लिए सही मायने में सम्मान होगा अगर हम इनकी गाथा और देश के प्रति इनकी सच्ची श्रदा को अपनी आगे आने वाली पढ़ियों तक पहुंचाए जिससे उनके विचार सदा -सदा के लिए अमर हो जाएं। भारत के ऐसे वीरों को शत शत प्रणाम।

जय हिन्द जय भारत।

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