“ प्रेम के भेद” !
प्रेम के तीन भेद हैं।
व्यापारी प्रेम
प्रथम – जिसे हम व्यापारी का प्रेम कह सकते हैं । मैं तुमसे प्रेम करता हूँ , इसके बदले में तुम भी मुझसे प्रेम करो । प्रायः मनुष्य इसी प्रेम का अभ्यासी है – जैसे मैं तुमको गेहुँ देता हूँ, तुम मुझको चना दो। क्यों कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, इसलिये तुम भी मुझसे प्रेम करो। इसमें यदि दूसरा व्यक्ति प्रेम नहीं करता तो प्रथम व्यक्ति दुःखी हो जाता है। इतना ही नहीं, यदि मध्य में कोई दूसरी चीज़ आ जाती है तो उसके हृदय में ईर्ष्या और न जाने किन भावों का उदय होता है। प्रायः मनुष्य प्रेम शब्द से इसी को समझता है। लेकिन वह वास्तिक प्रेम है नहीं। इसको तो शास्त्रीय शब्द में भाव शब्द से कहा गया है। भाव और प्रेम में बड़ा अन्तर है।
प्रेम का दूसरा भेद
इसमें मनुष्य केवल चाहता ही चाहता है । आजकल लोगों में यह भाव प्रधान होता चला जा रहा है कि तुम तो हम से प्रेम करो , हमको कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है । इसको अंग्रेजी भाषाकारों ने नाम दिया है !
” Demanding Love” –
जिसमें हम केवल अपनी ही दृष्टि चाहते हैं दूसरे की नहीं । यह पहले से निकृष्ट है क्यों कि प्रेम के अन्दर देना होना चाहिये लेना नहीं ।
तृतीय भेद
ये भेद प्रेम की पूर्णता का है। जिसमें केवल देना ही देना होता है लेना सर्वथा नहीं।
ये तीन भेद केवल लौकिक प्रेम के ही नहीं होते परमात्मा के प्रति प्रेम में भी दिखाई पड़ते हैं। कई लोग परमात्मा से लेते ही लेते हैं। सदा कुछ न कुछ मांगते ही रहते हैं, पर यदि कुछ देने का अवसर आ जाए तो उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं होते। न उसकी जरूरत ही समझते हैं । आजकल इसी प्रकार की भावना का प्रभाव देखने को आता है।
किसी भक्त ने कहा है : –
"आश्लिष्य वा पादरता पिनष्टु मामदर्शनार्न्महतां करोतु वा । यथा तथा वा विदधातु लम्पटी मत्प्राणनाथस्तु स एव केवलः॥ "
भक्त क्या कह रहा है कि परमेश्वर चाहे मुझे स्वीकार करे या न करे दोनों ही हालतों में मैं तो उसको ही ” प्राणनाथ ” स्वीकार करता हूँ, मेरा प्रेम पात्र वही है।
प्रेम की पूर्णता वहीं होती है जहां लेने का विचार मन में नहीं आता केवल देना ही देना रहता है । ऐसा नहीं होता कि बदले में ईश्वर का प्रेम न मिले । जो इस प्रकार ईश्वर से प्रेम करेंगे उनको न केवल ईश्वर का प्रेम मिलेगा बल्कि जो कुछ भी परमेश्वर के हाथ में है वह सारा का सारा अपने भक्त को दे देगा ।
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