उठ खड़ी है फिर से
टूटी वह भी है ,कौन जानता है।
बिखरी कितनी दफा, उसका मन पहचानता है।
उठ खड़ी है फिर से धुले बालों को समेटती, उलझे उलझे हालात बिखरे घर को सहेजती। यह समेटना, सहेजना, संभालना यह समेटना, सहेजना, संभालना नियति होती औरत की।
टूटी वह भी है ,कौन जानता है। बिखरी कितनी दफा, उसका मन पहचानता है। पहनकर झूठी हंसी, लपेटकर चाहतों का आंचल। चल देती है फिर से, लिए अश्कों का बादल, कितना अंदर दरक रहा बस वह जानती है। अस्त-व्यस्त सी होकर भी सब कुछ संभालती है।
रिश्तो की फिकर कहीं अपनों की चिंता। अनकही बातें उसकी कहां कोई है सुनता। चली जाती है यूं ही गुजारती जिंदगी उठ खड़ी है फिर से धुले वालों को समेटती।
दीपा गोमी
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